प्रस्तावना: धर्म क्या है, मानवता क्या है?
धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है – “धारण करने योग्य चीज़”, यानी जो समाज को बनाए रखे, जोड़कर रखे। लेकिन इतिहास के लंबे सफर में धर्म कभी आस्था का सहारा बना, तो कभी सत्ता का हथियार।
वहीं मानवता — जिसे न कोई पूजा-पद्धति चाहिए, न कोई ग्रंथ — हमेशा मौन रहकर सबको जोड़ती रही।
तो सवाल उठता है: क्या धर्म ने मानवता को आगे बढ़ाया? या उसे सीमाओं में बाँध दिया?
आदिम मानव: धर्म से पहले का युग
लगभग 10,000 साल पहले, जब मानव सभ्यता का विकास प्रारंभिक अवस्था में था, तब इंसान शिकारी और भोजन-संग्राहक के रूप में जीवन व्यतीत करता था। उस समय न कोई धर्म था, न ईश्वर की कल्पना, न मंदिर, न ही कोई धार्मिक ग्रंथ। जीवन का एकमात्र उद्देश्य था – भूख मिटाना और जीवित रहना।
यह युग भय और संघर्ष से भरा हुआ था। प्रकृति की ताक़तें – जैसे तूफान, आग, बारिश, और जंगली जानवर – इंसान के लिए रहस्यमयी और डरावनी थीं। अपनी सुरक्षा के लिए मानव छोटे-छोटे समूहों में रहता था, जहाँ कोई स्थायी समाज या व्यवस्था नहीं थी। नियम-कानून की जगह सिर्फ ज़रूरतें और अस्तित्व की लड़ाई थी।
इन छोटे समूहों में भी सहयोग और साझा जीवन की झलक मिलती थी – भोजन साझा करना, शिकार में साथ देना, और बच्चों की देखभाल में मदद करना। यही प्रारंभिक सह-अस्तित्व की नींव थी।
इस दौर का मानव न तो भगवान से डरता था और न ही मोक्ष की कामना करता था। वह केवल अपने आसपास की दुनिया को समझने और जीवित रहने की जद्दोजहद में लगा था। यही था मानवता का सबसे मौलिक, कच्चा और असली रूप।
धर्म की उत्पत्ति: डर, रहस्य और कल्पना
धर्म की उत्पत्ति मानव के प्रारंभिक डर, रहस्य और कल्पना से जुड़ी हुई है। जब इंसान जंगलों में रहता था और प्रकृति की शक्तियों को नहीं समझ पाता था, तब उसने इन शक्तियों को देवी-देवताओं का रूप दे दिया। जब बिजली कड़कती थी, तो उसे किसी क्रोधित देवता की शक्ति माना जाता था। बारिश होने पर लोग समझते थे कि इंद्र देव प्रसन्न हो गए हैं। किसी की मृत्यु होने पर आत्मा, पुनर्जन्म और परलोक जैसी कल्पनाएँ सामने आने लगीं।
इन सभी अनुभवों ने मनुष्य को यह सोचने पर मजबूर किया कि उसके चारों ओर कोई अदृश्य शक्ति है, जो सब कुछ नियंत्रित कर रही है। भय और अज्ञान के मेल से धर्म की नींव पड़ी। समय के साथ इन विचारों में कथाएँ जुड़ीं, जिन्हें पुराणों और धर्मग्रंथों में लिखा गया। कर्मकांड, पूजा-पद्धति और मंदिर जैसे संगठनों का विकास हुआ। धर्म अब केवल व्यक्तिगत विश्वास नहीं रहा, बल्कि समाज को नियंत्रित करने और जोड़ने का माध्यम बन गया।
इस प्रकार धर्म एक सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था के रूप में उभरा, जिसकी जड़ें इंसान की जिज्ञासा, कल्पना और भय में थीं।
4️⃣ प्रारंभिक सभ्यताएँ: धर्म नहीं, व्यवस्था पहले थी
मानव इतिहास की प्रारंभिक सभ्यताओं जैसे मेहरगढ़ और सिंधु घाटी ने यह सिद्ध किया कि समाज की नींव धर्म नहीं, बल्कि सुव्यवस्थित जीवनशैली और सामूहिक संगठन था। मेहरगढ़, जो आज के पाकिस्तान में स्थित है, कृषि, पशुपालन और अनाज भंडारण की प्रारंभिक झलक देता है। वहीं सिंधु घाटी सभ्यता — हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगर — उत्कृष्ट नगर नियोजन, जल निकासी व्यवस्था, पक्के मकानों और अनाज के विशाल भंडारों के लिए प्रसिद्ध हैं।
इन सभ्यताओं में कहीं भी कोई विशाल मंदिर, मूर्ति पूजा का प्रमाण या धार्मिक ढांचे नहीं मिले हैं। यह संकेत करता है कि उस समय का समाज धार्मिक रीति-रिवाजों पर नहीं, बल्कि सामाजिक संगठन, आपसी सहयोग और प्रशासनिक व्यवस्था पर आधारित था।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि मानवता की प्रारंभिक पहचान एक संवेदनशील, वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले और संगठित समाज के रूप में हुई थी, न कि किसी धार्मिक या आध्यात्मिक ढांचे से। धर्म बाद में आया, लेकिन पहले इंसान ने रहन-सहन, नियम और सहयोग को चुना। यही हमारी असली विरासत है — सोचने, समझने और साथ रहने की क्षमता।
वैदिक युग से दर्शन तक: धर्म का उदय और विभाजन
वैदिक युग की शुरुआत प्रकृति-पूजन से हुई। उस समय के लोग अग्नि, वायु, सूर्य जैसे प्राकृतिक तत्वों को देवता मानकर उनकी पूजा करते थे। यह श्रद्धा उनके जीवन के हर पहलू में झलकती थी — कृषि, वर्षा, प्रकाश और ऊर्जा सब कुछ इन देवों पर आधारित था। वेदों की रचना इसी काल में हुई, जिसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद शामिल हैं। इन ग्रंथों ने न केवल आध्यात्मिकता, बल्कि विज्ञान, गणित, औषधि और खगोल जैसे विषयों में भी ज्ञान का मार्ग खोला।
धीरे-धीरे समाज में वर्ण व्यवस्था उभरने लगी। आरंभ में यह व्यवस्था कार्यों के आधार पर थी — ब्राह्मण (ज्ञानी), क्षत्रिय (रक्षक), वैश्य (व्यापारी), और शूद्र (सेवक)। लेकिन समय के साथ यह जन्म आधारित बन गई और ऊँच-नीच की भावना ने समाज को बाँट दिया।
इस सामाजिक असमानता ने कई सवाल खड़े किए। इन्हीं सवालों से जन्म हुआ दर्शन का — उपनिषदों, जैन और बौद्ध विचारधाराओं ने आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष जैसे गहरे विषयों पर विचार किया। धर्म अब केवल पूजा नहीं, बल्कि सोचने और समझने का एक गहन मार्ग बन गया। यही बदलाव बाद में धार्मिक विभाजन और सुधार आंदोलनों का कारण बना।
बौद्ध और जैन विरोध
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारतीय समाज में धर्म के नाम पर अंधविश्वास, कर्मकांड और जातिवाद का बोलबाला था। यज्ञ, बलि, पुरोहितवाद और ब्राह्मणों की प्रधानता ने आम जनता को धार्मिक अधिकारों से वंचित कर दिया था। ऐसे समय में गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी ने एक क्रांतिकारी विचारधारा प्रस्तुत की, जो मानवता, तर्क और करुणा पर आधारित थी।
गौतम बुद्ध ने कहा — “करुणा, तर्क और अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं।” उन्होंने पूजा-पाठ, मूर्ति-पूजन और बलि जैसी परंपराओं का विरोध किया। बुद्ध ने चार आर्य सत्यों और अष्टांगिक मार्ग के माध्यम से एक ऐसा जीवन मार्ग दिखाया जो आत्मज्ञान, नैतिकता और ध्यान पर आधारित था।
इसी तरह, महावीर स्वामी ने भी कर्मकांडों और हिंसा का विरोध करते हुए ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का संदेश दिया। उन्होंने आत्म संयम, सत्य और अपरिग्रह को जीवन का मूल आधार बताया।
दोनों महापुरुषों का यह विरोध केवल धार्मिक परंपराओं के विरुद्ध नहीं था, बल्कि यह सामाजिक असमानता और अन्याय के विरुद्ध मानवता की एक आवाज़ थी। यही कारण है कि बौद्ध और जैन धर्म को एक सामाजिक सुधार आंदोलन के रूप में भी देखा जाता है।
साम्राज्य और धर्म: सहयोग या शोषण?
प्राचीन भारत में धर्म और साम्राज्य का संबंध जटिल था — कहीं सहयोग का रूप था, तो कहीं शोषण का। मौर्य सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म की ओर झुकाव, एक नैतिक राज्य की स्थापना की दिशा में था। कलिंग युद्ध के बाद उन्होंने हिंसा का त्याग किया और बौद्ध मूल्यों को अपनाया। हालांकि, उन्होंने अन्य धर्मों को भी सम्मान दिया, जिससे धार्मिक सहिष्णुता का संदेश फैला।
वहीं, गुप्त काल में हिंदू धर्म को विशेष संरक्षण मिला। कला, साहित्य और विज्ञान का खूब विकास हुआ, लेकिन इसके साथ-साथ वर्ण व्यवस्था और पितृसत्ता को भी बढ़ावा मिला। धर्म यहाँ सत्ता का एक अंग बनता गया। ब्राह्मण वर्ग को विशेषाधिकार मिले और सामाजिक असमानताएँ गहरी हुईं।
आलोचक मानते हैं कि धीरे-धीरे धर्म सत्ता के समीप आने लगा और फिर उसका औज़ार बन गया। जहां धर्म पहले मानवता और नैतिकता की बात करता था, वहीं अब वह शासकों की स्थिरता और वर्चस्व बनाए रखने का माध्यम बन गया। यह बदलाव धर्म के मूल उद्देश्यों से भटकाव की ओर संकेत करता है, और हमें सोचने पर मजबूर करता है — क्या धर्म का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए हुआ, या सत्ता के संरक्षण के लिए?
मध्यकाल: धर्म के दो चेहरे — सत्ता और संवेदना
भारत का मध्यकाल (13वीं से 18वीं शताब्दी) एक ऐसा दौर था जहाँ धर्म सत्ता का भी औज़ार बना और मानवता का मार्गदर्शक भी। इस युग में दिल्ली सल्तनत और बाद में मुग़ल शासन ने धर्म का उपयोग केवल आस्था के लिए नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक पहचान और सत्ता को स्थापित करने के लिए भी किया। मंदिरों का ध्वंस और मस्जिदों का निर्माण केवल धार्मिक क्रियाएं नहीं थीं, बल्कि राजनीतिक ताकत दिखाने के प्रतीक भी बन गई थीं। शासक अपने-अपने धर्म को सर्वोच्च दिखाने की कोशिश करते रहे, और आम जनता इन संघर्षों में पिसती रही।
लेकिन इसी काल में एक और आध्यात्मिक क्रांति हुई — भक्ति और सूफी आंदोलन। इन आंदोलनों ने धर्म को सत्ता से अलग कर, उसे प्रेम और संवेदना का माध्यम बनाया। संत कबीर ने कहा, “मस्जिद ढायो, मंदिर ढायो, ढायो जो कुछ दाय, पर कभी न दिल को ढायो, ये तो घर खुदा का हाय।” तुलसीदास ने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कह कर मानवता का आदर्श बनाया। बाबा फरीद और रैदास ने जाति-पांति और धार्मिक भेदभाव को नकारते हुए प्रेम को सच्चा धर्म बताया।
इस प्रकार मध्यकाल हमें धर्म के दो रूपों से परिचित कराता है — एक जहां धर्म सत्ता और युद्ध का साधन बना, और दूसरा जहां धर्म प्रेम, करुणा और समरसता का मार्गदर्शन करता रहा। यह युग न केवल सत्ता संघर्ष की कहानी है, बल्कि आध्यात्मिक जागरण और मानवता की भी गाथा है। धर्म के नाम पर खून भी बहा, और उसी धर्म ने लोगों को जोड़ने का काम भी किया।
धर्म और राजनीति: औपनिवेशिक भारत से आज़ाद भारत तक की यात्रा
ब्रिटिश शासनकाल में भारत में “Divide and Rule” यानी “फूट डालो और राज करो” की नीति ने धर्म को एक हथियार बना दिया। अंग्रेजों ने भारतीय समाज की विविधता को अपनी ताकत नहीं, बल्कि कमजोरी बना दिया। हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच जो सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अंतर थे, उन्हें राजनीतिक रूप से उभार कर अंग्रेजों ने धार्मिक दंगों और नफरत की ज़मीन तैयार की।
बंगाल विभाजन (1905) इसका पहला बड़ा उदाहरण था, जहाँ धार्मिक आधार पर एक पूरे राज्य को बांटा गया। इसके बाद साम्प्रदायिक राजनीति को खुला समर्थन मिला, और हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने की कोशिशें तेज़ हो गईं। अंग्रेजों ने शिक्षा और आधुनिकता के नाम पर कुछ सकारात्मक बदलाव जरूर किए, लेकिन साथ ही धार्मिक कट्टरता को भी हवा दी गई। धर्म के नाम पर बने संगठन, आंदोलन और पार्टियाँ इसी काल में शुरू हुईं।
हालांकि इस अंधेरे दौर में कुछ रोशनी के स्तंभ भी खड़े हुए। स्वामी विवेकानंद ने धर्म को मानव सेवा से जोड़ा। उन्होंने कहा, “धरती के हर प्राणी में भगवान बसते हैं। सेवा ही सच्चा धर्म है।” महात्मा गांधी ने रामराज्य की कल्पना की, जहाँ सभी धर्मों का सम्मान हो। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने धर्म को खुले मन और विचारों से जोड़ते हुए साम्प्रदायिकता का विरोध किया। लेकिन सत्ता की राजनीति ने इन आवाज़ों को कमजोर कर दिया।
9️⃣ स्वतंत्र भारत और संविधान: धर्मनिरपेक्षता की उम्मीद
जब भारत 1947 में आज़ाद हुआ, तब सबसे बड़ा सवाल यही था — क्या यह देश धर्म के आधार पर चलेगा या सभी धर्मों को समान स्थान मिलेगा? इस सवाल का जवाब भारत के संविधान ने दिया।
अनुच्छेद 25 से 28 तक भारत के नागरिकों को यह अधिकार दिया गया कि वे किसी भी धर्म को मान सकते हैं, उसका प्रचार कर सकते हैं और धार्मिक स्वतंत्रता का आनंद ले सकते हैं। संविधान ने भारत को “धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र” घोषित किया — यानी राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, और सभी धर्मों को समान रूप से देखा जाएगा।
लेकिन सवाल उठता है — क्या यह आदर्श हकीकत में भी है?
आज चुनाव धर्म के नाम पर लड़े जाते हैं। धर्म के आधार पर वोट बैंक बनाए जाते हैं। सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाले संदेश वायरल होते हैं। अब धर्म की लड़ाई तलवारों से नहीं, ट्रोलिंग और वायरल वीडियोज़ से लड़ी जा रही है। धर्मगुरु अब आध्यात्मिक मार्गदर्शक कम, ब्रांड और सेलिब्रिटी ज़्यादा बन चुके हैं।
टीवी चैनलों पर बहस धर्म को लेकर होती है, लेकिन समाधान की बात कोई नहीं करता। ईश्वर को अब चैनलों, एप्स और मंदिर-मस्जिद की ऑनलाइन मार्केटिंग में “बेचा” जा रहा है।
धर्म, जो कभी आत्मा की शांति और समाज की एकता का माध्यम था, अब राजनीतिक और आर्थिक लाभ का उपकरण बन गया है।
निष्कर्ष: जब धर्म छोटा लगे और इंसान बड़ा हो जाए
धर्म एक शक्तिशाली विचार है, जिसने सदियों से इंसानों को जोड़ने का काम किया है। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे, ये सब इंसान की आस्था के प्रतीक हैं। धर्म ने हमें सही और गलत में फर्क करना सिखाया, जीवन में नैतिकता और करुणा का महत्व बताया। लेकिन यही धर्म, जब संकीर्ण सोच और कट्टरता का शिकार हो गया, तो उसी ने लोगों के बीच दीवारें खड़ी कर दीं।
इतिहास गवाह है कि धर्म के नाम पर अनेक युद्ध, दंगे और भेदभाव हुए। इंसान ने इंसान को जाति, मजहब और रंग के आधार पर बाँट दिया। यह धर्म का उद्देश्य नहीं था। धर्म का मूल संदेश प्रेम, करुणा और एकता रहा है, न कि नफरत और बंटवारा।
आज जब दुनिया विज्ञान, तकनीक और वैश्विक एकता की ओर बढ़ रही है, तो हमें भी अपनी सोच को विस्तृत करना होगा। धर्म को केवल एक निजी आस्था तक सीमित रखें और मानवता को अपना सार्वजनिक धर्म बनाएं। जब इंसानियत सबसे बड़ा धर्म बन जाएगी, तभी सच्चे अर्थों में समाज में शांति, प्रेम और भाईचारा स्थापित हो सकेगा।
क्योंकि अंत में — इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है।